माथे पर शिकन, सूरत मेरी सेहमी थी।
उंगलियों में कसक, सांसों में गेहमा-गेहमी थी।
जो समेटा उसने आगोश में, पल भर में बिखरी मैं,
“धड़कन ना बढ़ेगी” – ग़लतफहमी थी।
माथे पर शिकन, सूरत मेरी सेहमी थी।
उंगलियों में कसक, सांसों में गेहमा-गेहमी थी।
जो समेटा उसने आगोश में, पल भर में बिखरी मैं,
“धड़कन ना बढ़ेगी” – ग़लतफहमी थी।
चला जो सिलसिला-ए-वस्ल, रिवायत हो गई।
पढ़ना था जिसे किताब की तरह, वो आयत हो गई।
वो शख़्स जो ख़्याल है मेरी जुम्मे की शाम का,
पल मांगे उस से , सबाह–शब्ब की इनायत हो गई।