हुए जो मुख़ातिब फिर

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ना आयी कोई आवाज़ तेरी, ना थामा मेरा हाथ।

पराया हुआ वो आशियां, जो साझा तेरे साथ।

हुए जो मुख़ातिब फिर, तो ख़ामोश ही रहूंगा।

ख़ामोश था तेरी चौखट पर, अब क्या कहूंगा?

रंजिशें

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हुई रंजिश, जला आशियाँ,
राहों से मेरी, जुदा तेरा मकां।
क़त्ल हुआ महफ़िल-ए-यार में,
दिल में दफ़न था, हाल-ए-बयां।

इस्तक़बाल था लबों पे तेरे, पर खुश्की थी.
सवालिया थी नज़र मेरी, नज़रों की कुश्ती थी.
लतीफ़ों के काफिले में मसरूफ तो थे दोनों,
पर ज़हन के एक कोने में, अनकही, अनसुनी..एक सिसकी थी.

रह रह कर रह गया, वो छूटा नहीं,
सपना हसीन वो, टूट कर भी टूटा नहीं.
होगा वो भी आलम, जब रंजिशें मिटा देगा तू,
इस काफिर के नशों से, तू भी तो अछूता नहीं.

This is when you know that the person is lost. The connection, the bonding, the TRUST is lost. Both of you have mutually lost each other. But, yet, it’s not over. Some call it a “baggage”, some call it “hope”. For me, it’s best left unsaid.

Grievances will find their way. And, so would affection and adorability.